Thursday, September 30, 2021

A Few Hindi poems

 

मेरी कुच्छ हिंदी कविताएं



प्रेमचंद के लोगों का महानगरीकरण

 

इस महान महानगर में

जिसे विश्वस्त्रीय नगर बनने की लालसा है

मुझे एक सुरक्षित सैरगाह मिल गई है

नगर में निरन्तर चल रही गाड़ियों की भीड़ से

एक-सौ-पचास मीटर लम्बी एक ओर से बन्द सड़क की टुकड़ी

जिस के एक ओर पतली-सी हरित पट्टी

दूसरी ओर एक हाउसिंग सोसाईटी की ऊंची दीवार

 

यह सड़क की टुकड़ी आबाद है पर शांत

आधी ग़ैर कानूनी पार्किंग बन गई है

दो दर्जन टैक्सियों और ट्रकों के  लिए

उन के ड्राईवर सुस्ताते बतियाते हुए

 

सड़क की एक पटरी पर कूड़े और कबाड़  का ढेर

मैट्रो ऐमसीडी पड़ौसी आबादी का जुटाया हुआ

बेकार तख़्ते बांस पाईप प्लासटिक के टुकड़े

टूटी-फूटी गंदी प्लासटिक की बोतलें बालटियां खिलौने थैले बग़ैरा


सड़क की दूसरी पटरी पर  एक दर्जन मज़दूरों के परिवार

जो अतिआधूनिक मैट्रौ प्रौजैक्ट में काम करते हैं

उनकी झुग्गीयां कबाड़ को जोड़-तोड़ कर बनाई हुई

ईटें तख्ते लोहे की जंगीली चादरें प्लासटिक शीट आदि मिला कर

झुग्गियों के सामने सड़क पर उनके सफ़ाई से लिपे मिट्टी के चूल्हे

लकड़ी के छोटे-छोटे ढेर जो शायद हरित पटट्टी से इकट्ठे किये गए हैं

लंगड़ाती चारपाईआं झूले पेड़ों की टहनियों से लटकते

घिसे पलाईवुड के टुकड़ों को कीलों से जोड़ कर बनाये पटड़े

टूटी-फूटी मैली-कुचैली प्लासटिक की बालटियां बोतलें

पानी भरने के लिये जो न जाने कहां से लाया गया है

 

काले शरीर वाले पुरुष मैली-कुचैली धोधोतियां पैन्ट कच्छे पहने

अपनी झुग्गियों के आगे उदासीन बैठे दिन भर की कवायत के बाद

एक चूहले के लिये लकड़ी चीरता हुआ

औरतें - दुबली-पतली कुपोषित शायद सालों सेअनधुली साड़ियां पहने

रोटियां सेंकती पत्थर पर मिरची पीसतीं

अपने आप को या गोदी में लिटाए बच्चे  को पंखा झेलतीं

या निशचल बैठी या बतियाने में मग्न

अपने अन्य बच्चों की निगरानी करती हुई

जो सड़क के  बीचों-बीच जो उन का आंगन है खेल रहे

गंदे टूटे खिलौंनो से या क्रिकट कबाड़ की लकड़ी से बैट और विकट बना कर

 

उस  सड़क के बीचों-बीच चलते मुझे लगता है

मैं उन के निजी जीवन में दख़लअंदाज़ी कर रहा हूं

 

पर वे हैं कौंन?

 

सहसा मेरे मन में ख़्याल उठता है

क्या प्रेमचन्द के हल्कू घीसू  झुरिया होरी धनिया

मंगल दुखी सोना आदि सभ इस महान  नगर के  नागरिक बन गए हैं

और ले आए हैं अपने साथ अपनी जान अपने हाथ पैर

अपने थके हुए शरीर जो उनकी पूंजी है

और इस सभ कुछ को गिरबी रख दिया है

अपने नए मालिकों नए ठाकरों ज़मीदारों साहुकारों के हाथ

नवीन अतिआधूनिक मैट्रौ बनाने के लिए

इस मंहानगर की शान के लिए

और इस महान देश के गौरव के लिए

 

और आजकल यह सड़क की टुकड़ी बन गई है

मेरी हर शाम की सैरगाह

उन की लग़तार सवाल करती आँखों के बावजूद

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 मुसाफ़िर

 

मैं इस मंहानगरी में

जो देश की राजधानी है

पचास वर्षों से टिका हुंआ हॣं

एक अजनवी की तरह

 

मैं पैदा हुआ अपने ननिहाल में

पिता का घर कहीं और था

मां के क़सवे में पढ़ाई शुरू की

फिर वहां से निकलना पड़ा

पंहुचा कभी वहां कभी वहां

जहां फ़ौजी पिता की नौकरी ले गई

कहां से कहां गया पढ़ाई के लिए

फ़िर नौकरी के लिए

कभी इस कभी उस शहर

जो दोस्त बने वहीं छूट गए

या मुझ से कहीं दूर चले गए

फ़िर आख़िर अटक गया इस महांनगरी में

एक किराए के मकान में

हर तीसरे-चौथे साल किसी और मकान में

शादी की बच्चे पैदा किए पाले बड़े किए पढ़ाए

फ़िर वे इस शहर को छोड़ कहीं और बस गए

रिटाइर होने के क़रीब

एक घर बना लिया

जिस में मैं अपनी पत्नि के साथ रहता हूं

पर अब भी लगता है मैं यहां किराएदार हूं

इसे छोड़ कर फ़िर चल दूं गा कहीं दूर

एक मुसाफ़िर की तरह

 

सोचता हूं हैरान भी हूं

लोग कैसे किसी शहर को

अपना बना लेते हैं

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  काश मैं भी उन जैसा हो पाता


जनवरी की धॣप में लेटा हॣं छत पर

कुरसी पर टांगे फ़ैलाए

उन गली के कुत्तों की तरह

जो पटरी पर या पार्क में पसरे पड़े हैं

स्निग्ध धूप का आनंद लेते हुए


साफ़ नीले आसमान  के नीचे

कबूतर बैठे हैं यहां वहां

या उड़ाने भर रहे हैं इधर उधर


दूर ऊपर तीन चार चीलें हवा में तैर रही हैं

विशाल गोले बनाती हुई मस्ती में


एक मैंना का जोड़ा मुँडेर पर पड़े

मिट्टी के बर्तन से पानी पी रहा है

इधर उधर देख कर

बस दो तीन चोंच भर


एक मक्खी मेरा चेहरा टटोल रही है

अपनी बालों से महीन टांगों पर चलती

 

सहसा धूप से ध्यान हटता है

सड़क पर चल रही गाड़ियों के शोर से

जो मन को झकझोर देता है

ज़माने भर की उलझनों से

 

पर यह कुत्ते यह पक्शी यह मक्खी

निश्चिंत हैं हर मानवी प्रशनों से

उन्हें कया लेना है

कौन प्रधानमन्त्री है

वह तानाशाह है या उदार

अगला चुनाव कौन जीते गा हारे गा

पढ़ौसी देश से मित्रता हो गी या शत्रुता


उन्हें क्या लेना है

कौन ग़रीब है कौनअमीर

न्याय क्या हैअन्याय क्या है


 उन्हें क्या लेना है

व्यपार बाज़ार आयात निर्यात से 

श्यर बाज़ार में उतार चढ़ाव

भूख बीमारी युध्द शान्ती

राष्ट्र जाति धर्म भाषा के नाम पर नरसंघार से


उन्हें क्या लेना है

इन्सान की बनाई बिगाड़ी दुनिया से


काश मैं भी उन जैसा हो पाता

इन सभ उलझनों को भुला कर!

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  हम पत्थर क्यों नहीं हो गए

 

हम पत्थर क्यों नहीं हो गए, या उस से भी कठोर

इस नाकाबन्दी को देख कर

इन भारीभरकम लोहे-पत्थर में ढले शहतीरों को

इन लच्छेदार कंटीले तारों के जाल को

इन सड़क के आरपार खोदी खाईयों को

और इन लंम्बे-तीख़े सरियों की क़तारों को देख कर

जो हमारी आंखों में चुभ रही हैं

 

क्या यह उन के अवचेतन मन की गहराईयों से

फूट कर निकली मन की बात हैं ?

 

इन्हें देख हम पत्थर क्यों नहीं हो गए

पर हम तो पहले ही पत्थर हो चुके थे

अंधी बहरी गूंगी मूर्तियां

 

पर यह प्रतीक तो घिसे-पिटे हैं

 

वे शब्द कहां हैं यह बतलाने के लिए कि

हम क्या हो गए हैं ?   

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