Wednesday, December 8, 2021

GULLIVER'S FIFTH VOYAGE: A SEQUEL





Here is the cover of my new book which is a sequel to 

                   Jonathan  Swift's Gulliver's Travels.





             


Here are the links to buy the book online:






Hope the book would interest the readers. 

T C Ghai
Author




Thursday, September 30, 2021

A Few Hindi poems

 

मेरी कुच्छ हिंदी कविताएं



प्रेमचंद के लोगों का महानगरीकरण

 

इस महान महानगर में

जिसे विश्वस्त्रीय नगर बनने की लालसा है

मुझे एक सुरक्षित सैरगाह मिल गई है

नगर में निरन्तर चल रही गाड़ियों की भीड़ से

एक-सौ-पचास मीटर लम्बी एक ओर से बन्द सड़क की टुकड़ी

जिस के एक ओर पतली-सी हरित पट्टी

दूसरी ओर एक हाउसिंग सोसाईटी की ऊंची दीवार

 

यह सड़क की टुकड़ी आबाद है पर शांत

आधी ग़ैर कानूनी पार्किंग बन गई है

दो दर्जन टैक्सियों और ट्रकों के  लिए

उन के ड्राईवर सुस्ताते बतियाते हुए

 

सड़क की एक पटरी पर कूड़े और कबाड़  का ढेर

मैट्रो ऐमसीडी पड़ौसी आबादी का जुटाया हुआ

बेकार तख़्ते बांस पाईप प्लासटिक के टुकड़े

टूटी-फूटी गंदी प्लासटिक की बोतलें बालटियां खिलौने थैले बग़ैरा


सड़क की दूसरी पटरी पर  एक दर्जन मज़दूरों के परिवार

जो अतिआधूनिक मैट्रौ प्रौजैक्ट में काम करते हैं

उनकी झुग्गीयां कबाड़ को जोड़-तोड़ कर बनाई हुई

ईटें तख्ते लोहे की जंगीली चादरें प्लासटिक शीट आदि मिला कर

झुग्गियों के सामने सड़क पर उनके सफ़ाई से लिपे मिट्टी के चूल्हे

लकड़ी के छोटे-छोटे ढेर जो शायद हरित पटट्टी से इकट्ठे किये गए हैं

लंगड़ाती चारपाईआं झूले पेड़ों की टहनियों से लटकते

घिसे पलाईवुड के टुकड़ों को कीलों से जोड़ कर बनाये पटड़े

टूटी-फूटी मैली-कुचैली प्लासटिक की बालटियां बोतलें

पानी भरने के लिये जो न जाने कहां से लाया गया है

 

काले शरीर वाले पुरुष मैली-कुचैली धोधोतियां पैन्ट कच्छे पहने

अपनी झुग्गियों के आगे उदासीन बैठे दिन भर की कवायत के बाद

एक चूहले के लिये लकड़ी चीरता हुआ

औरतें - दुबली-पतली कुपोषित शायद सालों सेअनधुली साड़ियां पहने

रोटियां सेंकती पत्थर पर मिरची पीसतीं

अपने आप को या गोदी में लिटाए बच्चे  को पंखा झेलतीं

या निशचल बैठी या बतियाने में मग्न

अपने अन्य बच्चों की निगरानी करती हुई

जो सड़क के  बीचों-बीच जो उन का आंगन है खेल रहे

गंदे टूटे खिलौंनो से या क्रिकट कबाड़ की लकड़ी से बैट और विकट बना कर

 

उस  सड़क के बीचों-बीच चलते मुझे लगता है

मैं उन के निजी जीवन में दख़लअंदाज़ी कर रहा हूं

 

पर वे हैं कौंन?

 

सहसा मेरे मन में ख़्याल उठता है

क्या प्रेमचन्द के हल्कू घीसू  झुरिया होरी धनिया

मंगल दुखी सोना आदि सभ इस महान  नगर के  नागरिक बन गए हैं

और ले आए हैं अपने साथ अपनी जान अपने हाथ पैर

अपने थके हुए शरीर जो उनकी पूंजी है

और इस सभ कुछ को गिरबी रख दिया है

अपने नए मालिकों नए ठाकरों ज़मीदारों साहुकारों के हाथ

नवीन अतिआधूनिक मैट्रौ बनाने के लिए

इस मंहानगर की शान के लिए

और इस महान देश के गौरव के लिए

 

और आजकल यह सड़क की टुकड़ी बन गई है

मेरी हर शाम की सैरगाह

उन की लग़तार सवाल करती आँखों के बावजूद

                    ---   


 मुसाफ़िर

 

मैं इस मंहानगरी में

जो देश की राजधानी है

पचास वर्षों से टिका हुंआ हॣं

एक अजनवी की तरह

 

मैं पैदा हुआ अपने ननिहाल में

पिता का घर कहीं और था

मां के क़सवे में पढ़ाई शुरू की

फिर वहां से निकलना पड़ा

पंहुचा कभी वहां कभी वहां

जहां फ़ौजी पिता की नौकरी ले गई

कहां से कहां गया पढ़ाई के लिए

फ़िर नौकरी के लिए

कभी इस कभी उस शहर

जो दोस्त बने वहीं छूट गए

या मुझ से कहीं दूर चले गए

फ़िर आख़िर अटक गया इस महांनगरी में

एक किराए के मकान में

हर तीसरे-चौथे साल किसी और मकान में

शादी की बच्चे पैदा किए पाले बड़े किए पढ़ाए

फ़िर वे इस शहर को छोड़ कहीं और बस गए

रिटाइर होने के क़रीब

एक घर बना लिया

जिस में मैं अपनी पत्नि के साथ रहता हूं

पर अब भी लगता है मैं यहां किराएदार हूं

इसे छोड़ कर फ़िर चल दूं गा कहीं दूर

एक मुसाफ़िर की तरह

 

सोचता हूं हैरान भी हूं

लोग कैसे किसी शहर को

अपना बना लेते हैं

     ---

  काश मैं भी उन जैसा हो पाता


जनवरी की धॣप में लेटा हॣं छत पर

कुरसी पर टांगे फ़ैलाए

उन गली के कुत्तों की तरह

जो पटरी पर या पार्क में पसरे पड़े हैं

स्निग्ध धूप का आनंद लेते हुए


साफ़ नीले आसमान  के नीचे

कबूतर बैठे हैं यहां वहां

या उड़ाने भर रहे हैं इधर उधर


दूर ऊपर तीन चार चीलें हवा में तैर रही हैं

विशाल गोले बनाती हुई मस्ती में


एक मैंना का जोड़ा मुँडेर पर पड़े

मिट्टी के बर्तन से पानी पी रहा है

इधर उधर देख कर

बस दो तीन चोंच भर


एक मक्खी मेरा चेहरा टटोल रही है

अपनी बालों से महीन टांगों पर चलती

 

सहसा धूप से ध्यान हटता है

सड़क पर चल रही गाड़ियों के शोर से

जो मन को झकझोर देता है

ज़माने भर की उलझनों से

 

पर यह कुत्ते यह पक्शी यह मक्खी

निश्चिंत हैं हर मानवी प्रशनों से

उन्हें कया लेना है

कौन प्रधानमन्त्री है

वह तानाशाह है या उदार

अगला चुनाव कौन जीते गा हारे गा

पढ़ौसी देश से मित्रता हो गी या शत्रुता


उन्हें क्या लेना है

कौन ग़रीब है कौनअमीर

न्याय क्या हैअन्याय क्या है


 उन्हें क्या लेना है

व्यपार बाज़ार आयात निर्यात से 

श्यर बाज़ार में उतार चढ़ाव

भूख बीमारी युध्द शान्ती

राष्ट्र जाति धर्म भाषा के नाम पर नरसंघार से


उन्हें क्या लेना है

इन्सान की बनाई बिगाड़ी दुनिया से


काश मैं भी उन जैसा हो पाता

इन सभ उलझनों को भुला कर!

          ---

   

  हम पत्थर क्यों नहीं हो गए

 

हम पत्थर क्यों नहीं हो गए, या उस से भी कठोर

इस नाकाबन्दी को देख कर

इन भारीभरकम लोहे-पत्थर में ढले शहतीरों को

इन लच्छेदार कंटीले तारों के जाल को

इन सड़क के आरपार खोदी खाईयों को

और इन लंम्बे-तीख़े सरियों की क़तारों को देख कर

जो हमारी आंखों में चुभ रही हैं

 

क्या यह उन के अवचेतन मन की गहराईयों से

फूट कर निकली मन की बात हैं ?

 

इन्हें देख हम पत्थर क्यों नहीं हो गए

पर हम तो पहले ही पत्थर हो चुके थे

अंधी बहरी गूंगी मूर्तियां

 

पर यह प्रतीक तो घिसे-पिटे हैं

 

वे शब्द कहां हैं यह बतलाने के लिए कि

हम क्या हो गए हैं ?   

---

 

 

           


Saturday, July 31, 2021

A Tribute to Milkha Singh, the Flying Sikh

 


                                           Milkha Singh, the Flying Sikh (1929-2021)

Perhaps the best way to pay a attribute to Milkha Singh, the Flying Sikh, is to quote the opening two paragraphs of his autobiography in Punjabi, Fying Sikh:Milkha Singh – Autobiography (1974) which he, it is said, wrote with help from the Punjabi revolutionary poet Pash (Avtar Singh Sandhu 1950-88) who was shot down by militants.

These two paragraphs are sheer poetry of the highest order. One is really amazed at a sportsperson’s understanding of one’s own self and the nature of world-class competitions like the Olympic games. He is not only aware of the miraculous emergence of life over an immeasurable span of time but also the momentariness of individual human life. At the same time, he is capable of understanding the immense possibilities hidden in the brief lifespan of a tiny being called man. 

 






Here is my translation of the two paragraphs into English.



A Broken Childhood

Emergence of life on this earth is perhaps the greatest miracle to happen on this planet. In this game played by innumerable stars, planets and suns since infinite times, man is just a tiny player. Yet in each and every beat of the human heart reside infinite strength, swiftness and possibilities. It is not necessary that the person who can understand and internalize in his soul this secret of Nature should be Milkha Singh; he can be anyone else.

This game of life did not begin with me, nor will it end with me. The heart in my body has throbbed in this vast stadium only for a brief period out of just one century; and one day I shall quietly walk out of this stadium leaving behind other players engrossed in their astounding feats.

 

The tribute is somewhat belated. That is because I had been trying to get hold of this autobiography published long back and is now out of print. Some people have said that the prose in the autobiography has the stamp of Pash’s prose. That may be, but the thoughts expressed in these lines can occur only to a sportsperson who has taken part in competitions with the world’s best and knows that he is competing with the finest sportspersons of the world and winning or losing does not diminish any of them. The winner can be any one not necessarily Milkha Singh.  



Those interested in reading these paragraphs in original  can find them here below.





 

Here is the link to read the full autobiography:





Wednesday, June 16, 2021

Guchhi गुच्छी (The Morel ) A poem

Here is a Hindi poem titled गुच्छी (Guchhi) by  Dr Satyanaren Snehi who teaches Hindi at Govt College Sanjoli, Shimla Hills in Himachal Pradesh. This very interesting poem has been extracted from his collection इंटरनैट पर मेरा गाँव  ( My Village on  the Internet) published in 2020 by Prakashan Sansthaan New Delhi, It was sent to me by Dr Suresh  who teaches English at a college in Theog , Shimla Hills. I have translated this poem into English.

A brief introduction to the subject of this poem won't be out of place. 

Guchhi (Morchella), or the morel, is a rare mushroom, which in India is collected in the wild mainly in Kashmir and Himachal hills. It is a delicacy, excellent and delicious in taste, and has tremendous nutritional  and medicinal value It can be used both in fresh and dried state but it must be cooked before eating. Eating it raw is harmful. And because it is rare and so valuable as food and health booster it is very expensive. One kilogram of dried morels may cost between Rupees 20,000/ to 40,000/, depending on the quality! 

Enjoy reading  the poem and imagine the taste of a dish prepared using morels. And read more about morels. 






source;


https://th.bing.com/th/id/OIP.q-HcFVFgL-0HuzRYCm-SWAAAAA?pid=ImgDet&rs=1






source:     https://zestfulkitchen.com/wp-content/uploads/2019/12/morel-700x467.jpg
                                







गुच्छी

 

जिन्नहें नहीं मिलता

भर पेट अन्न

वे पोटली में बाँदकर सूखी रोटी

सुबह से शाम

ढूँढते हैं गुच्छी

घनघोर जंगल में

 

गरीब की रोज़ी

अमीर की रोटी

 हर साल खास मौसम में

उगती है एक बार

बीहबान जंगलों में

 

वे नहीं जानते

गुच्छी का स्वाद

गुच्छी के असली दाम

झोले से प्लेट में

पहुंचते ही गुच्छी

भूख नहीं मिटाती

ताकत बढ़ाती है

 

गुचछी प्रतिफल है

जमीनी और मौसमी

हरकतों का

जिस के नहीं  होते बीज

नहीं होती काशतकारी

 

जबकि

आदमी पहुंच गया है

मंगल पर

समेट ली है सारी धरती

मुट्ठ्टी में

खोज लिये हैं

सृष्टि के कण-कण

गुच्छी एक पहेली है

उगा नहीं सका आदमी

अभी तक

इस का एक बीज

---

'इंटरनैट पर मेरा गाँव' से

 

 ----

         My translation

          Guchchi (The Morel)

             They who cannot get

                                                           enough to eat

                                                           bundle up dry bread in a small bag

                                                            and go into dense forests

                                                           in search of morels

                                                            morning to evening.

 

                                                           Livelihood for the poor

                                                             a delicacy for the rich;

                                                           the morel grows   

                                                            in a particular season

                                                            only once a year

                                                            in forbidding forests.

                                                           

                                                           The poor don’t know

                                                            the taste of morels

                                                            their real value.

                                                      The morel goes

                                                            from the bag to the plate

                                                           not to alleviate hunger;

                                                            but to act as a body booster.

 

                                                             The morel is the product

                                                              of interaction between the soil and environment;

                                                             it has no seed

                                                               it can’t be sown.

                                                   

                                                            Although man has reached the Mars 

                                                            enclosed the whole earth

                                                            in his fist

                                                              and explored every particle of the Creation

                                                               the morel is still an unsolved riddle:

                                                                humans haven’t been able to grow

                                                               till now

                                                               even a single morel seed.

                                                               ---

From: Internet Par Mera Gaon (My Village on the Internet)

by

Satyanaren Snehi





source:

https://townsquare.media/site/675/files/2017/05/Morel-mushrooms-Thinkstock.jpg?w=980&q=75

 


Tuesday, March 23, 2021

Bhagat Singh's Martyrdom Day

 Friends,

Here is the momentous news from The Tribune of 25 March 1931 on the three revolutionaries who were executed on 23 March 1931.This priceless cutting has been sent to me by Dr (Prof) Ramakant Agnihotri. I thankfully reproduce it here. With one addition after it.




Very interestingly, Pash  (Avatar Singh Sandhu) (1950-88) a revolutionary poet emerging out of the Naxalite movement in Punjab in the seventies of the last century, a great admirer of Bhagat Singh, was shot dead along with his friend Hans Raj by Khalistani militants on 23 March1988, the day of Bhagat Singh's martyrdom. Here is my translation of a Punjabi poem by Pash which appeared in his first collection of poetry Loh Katha (1970).


BHARAT                                           

 Bharat –

So deserving of my highest reverence!

Whenever this name is uttered

all other names become meaningless.

This name owes its essence

to those who toil in the fields,

and still measure time

by the length of shadows.

They have no other concerns

except their bellies,

and when they are hungry

they can chew their own limbs.

For them life is an empty ritual

and death a release.

Whenever someone talks

of the oneness of India

I feel like tossing up his cap,

and telling him:

The spirit of Bharat resides

not in some Dushyant

but in the fields

where peasants grow food

and robbers break in…

---

 

 T C Ghai






Wednesday, January 6, 2021

Faiz Ahmed Faiz: three poems

 Friends, Here are three poems by Faiz Ahmed Faiz (1911-1984) translated by me. One of these was written in Punjabi and addressed to Punjabi farmers. The other two have been translated from Urdu, and are among his best known poems. The poems are presented in Devanagri script followed by my English translations. The poem addressed to the Punjabi farmer has also been presented in Gurmukhi script.

The poem Tanhaai seems to have some similarities with or reflection of Walter de la Mare's two poems presented after the three poems. Is the similarity incidental? Remember Faiz was a student and then teacher of English literature in the pre-partition India. Walter de la Mare (1873-1956) belonged to a group of poets named Georgian poets majority of whom flourished in the first two decades of the twentieth century. I imagine Faiz must have read Walter de la Mare. But his great poem has a cultural, metaphorical and contextual originality and scintillating rhythm all its own.

The other two poems, 'Today, Come to the Marketplace in Fetters and 'A Song for the Punjabi Farmer' are revolutionary in intent. 


1.

तनहा

फिर कोई आया दिल--ज़ार नहीं कोई नहीं
राहरौ होगा, कहीं और चला जायेगा
ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का ग़ुबार
लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख़्वाबीदः चिराग़
सो गई रस्तः तक-तक के हरइक राहगुज़ार
अजनबी ख़ाक ने धुँदला दिये क़दमों के सुराग़
गुल करो शम्‍एँ, बढ़ा दो मय--मीना--अयाग़
अपने बे-ख़्वाब किवाड़ों को मुक़फ़्फ़ल कर लो
अब यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं आयेगा

                           ---

                     

 Loneliness

 

Did someone come, sad heart? No, no one

Must be a traveler, bound for somewhere

The night has melted, the stardust is fading

In the mansions the sleepy lamps are wearing out

Pathways have gone to sleep ‒ waiting, waiting…

The unwitting dust has buried the stamp of footsteps

Blow out the lamps, put away the wine, the cup, the goblet

Lock the doors of your sleepless eyes

No one, no one will come here now

                            ---               

 2.

आज बाज़ार में पा--जौलाँ चलो

चश्मे-नम जाने-शोरीदा काफ़ी नहीं
तोहमते-इश्क़ पोशीदा काफ़ी नहीं
आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो
दस्त-अफ्शाँ चलो, मस्तो-रक़्साँ चलो
ख़ाक़-बर-सर चलो, ख़ूँ-ब-दामाँ चलो
राह तकता है सब शहरे-जानाँ चलो
हाकिमे-शहर भी, मजम'ए-आम भी
तीरे-इल्ज़ाम भी, संगे-दुश्नाम भी
सुबहे-नाशाद भी, रोज़े-नाकाम भी
इनका दमसाज़ अपने सिवा कौन है
शहरे-जानाँ में अब बा-सफ़ा कौन है
दस्त-ए-क़ातिल के शायाँ रहा कौन है
रख़्ते-दिल बाँध लो दिलफ़िगारो चलो
फिर हमीं क़त्ल हो आएँ यारो चलो
आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो

                 ---

 

 Today, Come to the Marketplace in Fetters

 

Not enough the wet eyes, the angst-ridden life

Not enough the accusations of secret love

Today, come to the marketplace in fetters

 

Come waving your hands, in a drunken dance

Come with dust-laden heads, blood-stained clothes

Come, the beloved city is watching:

 

The city’s hakim, the crowds of people too

The arrows of accusation, the stones of abuse too

The disconsolate morn, the failed day too

 

Who besides us is there to befriend them?

Who now is trustworthy in this beloved city?

Who now is beyond the assassin’s reach?

 

Firm up your heavy hearts, o wounded hearts, come

Come, friends, to let ourselves be murdered

Today, come to the marketplace in fetters

 

                                        ---

 3.


 

ਇਕ ਤਰਾਨਾ ਪੰਜਾਬੀ ਕਿਸਾਨ ਦੇ ਲਈ

ਉੱਠ ਉਤਾਂਹ ਨੂੰ ਜੱਟਾ
ਮਰਦਾ ਕਿਉਂ ਜਾਨੈਂ
ਭੁਲਿਆ, ਤੂੰ ਜਗ ਦਾ ਅੰਨਦਾਤਾ
ਤੇਰੀ ਬਾਂਦੀ ਧਰਤੀ ਮਾਤਾ
ਤੂੰ ਜਗ ਦਾ ਪਾਲਣ ਹਾਰਾ
ਤੇ ਮਰਦਾ ਕਿਉਂ ਜਾਨੈਂ
ਉੱਠ ਉਤਾਂਹ ਨੂੰ ਜੱਟਾ
ਮਰਦਾ ਕਿਉਂ ਜਾਨੈਂ

ਜਰਨਲ, ਕਰਨਲ, ਸੂਬੇਦਾਰ
ਡਿਪਟੀ, ਡੀ ਸੀ, ਥਾਨੇਦਾਰ
ਸਾਰੇ ਤੇਰਾ ਦਿੱਤਾ ਖਾਵਣ
ਤੂੰ ਜੇ ਨਾ ਬੀਜੇਂ, ਤੂੰ ਜੇ ਨਾ ਗਾਹਵੇਂ
ਭੁੱਖੇ, ਭਾਣੇ ਸਭ ਮਰ ਜਾਵਣ
ਇਹ ਚਾਕਰ, ਤੂੰ ਸਰਕਾਰ
ਮਰਦਾ ਕਿਉਂ ਜਾਨੈਂ
ਉੱਠ ਉਤਾਂਹ ਨੂੰ ਜੱਟਾ
ਮਰਦਾ ਕਿਉਂ ਜਾਨੈਂ

ਵਿਚ ਕਚਹਰੀ, ਚੁੰਗੀ, ਥਾਣੇ
ਕੀਹ ਅਨਭੋਲ ਤੇ ਕੀਹ ਸਿਆਣੇ
ਕੀਹ ਅਸਰਾਫ਼ ਤੇ ਕੀਹ ਨਿਮਾਣੇ
ਸਾਰੇ ਖੱਜਲ ਖ਼ਵਾਰ
ਮਰਦਾ ਕਿਉਂ ਜਾਨੈਂ
ਉੱਠ ਉਤਾਂਹ ਨੂੰ ਜੱਟਾ

ਏਕਾ ਕਰ ਲੋ ਹੋ ਜੋ ਕੱਠੇ
ਭੁੱਲ ਜੋ ਰੰਘੜ, ਚੀਮੇ, ਚੱਠੇ
ਸੱਭੇ ਦਾ ਇਕ ਪਰਵਾਰ
ਮਰਦਾ ਕਿਉਂ ਜਾਨੈਂ

ਜੇ ਚੜ੍ਹ ਆਵਣ ਫ਼ੌਜਾਂ ਵਾਲੇ
ਤੂੰ ਵੀ ਛਵੀਆਂ ਲੰਬ ਕਰਾ ਲੈ
ਤੇਰਾ ਹਕ ਤੇਰੀ ਤਲਵਾਰ
ਮਰਦਾ ਕਿਉਂ ਜਾਨੈਂ

ਦੇ 'ਅੱਲ੍ਹਾ ਹੂ' ਦੀ ਮਾਰ
ਤੂੰ ਮਰਦਾ ਕਿਉਂ ਜਾਨੈਂ
ਉੱਠ ਉਤਾਂਹ ਨੂੰ ਜੱਟਾ


A Song for the Punjabi Farmer

               

By Faiz Ahmed Faiz

 

(Translated from Punjabi by TC Ghai)

 

Stand straight up, O Jatta

Why this listlessness?

Forgetting you’re the food giver to the world!

Mother Earth is your bondsmaiden

You are the world’s life sustainer

Why do you lie listless?

Stand straight up, O Jatta

Generals, colonels, subedars

Deputies, DCs, Thanedars –

All eat what you grow

If you didn’t sow, if you didn’t harvest

They all would die of starvation

Why this listlessness?

Stand straight up, O Jatta

In the court, at the octroi post, at the police station

Whether ignorant or wise

Whether high or low

All suffer alike

Why this listlessness?

Stand straight up, O Jatta

Unite and come together

Forget who is a Rangad, Cheema, or Chatha

All are one family

If they send armies after you

Sharpen your choppers

Your right, your sword

Why this listlessness?

Strike fear of Allah in them

Why do you lie listless?

Stand straight up, O Jatta

            ---

Two poems by Walter de la Mare


Alone

Walter de la Mare

 

The abode of the nightingale is bare,
Flowered frost congeals in the gelid air,
The fox howls from his frozen lair:
Alas, my loved one is gone,
I am alone:
It is winter.

Once the pink cast a winy smell,
The wild bee hung in the hyacinth bell,
Light in effulgence of beauty fell:
I am alone:
It is winter.

My candle a silent fire doth shed,
Starry Orion hunts o'erhead;
Come moth, come shadow, the world is dead:
Alas, my loved one is gone,
I am alone;
It is winter.

---

 

Some One

 

Walter de la Mare

 

Some one came knocking
At my wee, small door;
Someone came knocking;
I'm sure-sure-sure;
I listened, I opened,
I looked to left and right,
But nought there was a stirring
In the still dark night;
Only the busy beetle
Tap-tapping in the wall,
Only from the forest
The screech-owl's call,
Only the cricket whistling
While the dewdrops fall,
So I know not who came knocking,
At all, at all, at all.

---